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मंदिर है मन : प्रणय कविता : रावेंद्रकुमार रवि

>> Saturday, January 14, 2012


मंदिर है मन 


सोलह शृंगार तुम्हारे 
महकता सुमन! 
तभी तो अभी तक - 
मंदिर है मन!


रावेंद्रकुमार रवि

4 टिप्पणियाँ:

नीरज गोस्वामी January 14, 2012 at 3:36 PM  

... वाह...बहुत सुन्दर रचना...बधाई स्वीकारें
नीरज

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' January 15, 2012 at 6:06 PM  

वाह!
यह प्रणय सीपिका तो मोतियों से परिपूर्ण है।

Sufi January 27, 2012 at 3:52 PM  

Achhi rachna hai..sahaz sunder

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार April 3, 2012 at 11:42 PM  

.

रावेन्द्र रवि जी,
क्या बात है ! ग्रेट हैं आप !
इतनी संक्षिप्त रचना!
:)
अब नई पोस्ट डालिए मित्रवर !


शुभकामनाओं-मंगलकामनाओं सहित…
- राजेन्द्र स्वर्णकार

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