नन्हे दोस्तों को समर्पित मेरा ब्लॉग

नाम तुम्हारा : नवगीत : रावेंद्रकुमार रवि

>> Friday, July 30, 2010

नाम तुम्हारा




मेरे नवगीतों में नाम
तुम्हारा ऐसे सजता है -
जैसे रातों की रानी
पूनम में इंदु विहँसता है!


इंदु-प्रभा की किरण-किरण में
सजे तुम्हारे नेह-सुमन!
इन सुमनों की मुस्कानों से
सुख पाती मेरी धड़कन!

मेरे नवगीतों में नाम
तुम्हारा ऐसे सजता है -
जैसे मेरी हर धड़कन में
रूप तुम्हारा बसता है!


मेरा हृदय-निलय अनुगुंजित
रहे तुम्हारी बातों से!
ऐसी प्रीति करो अनुबंधित
अमिट-अभंजित नातों से!

मेरे नवगीतों में नाम
तुम्हारा ऐसे सजता है -
जैसे संबंधों का यौवन
संघर्षों से तपता है!

रावेंद्रकुमार रवि

(फ़ोटो : Saguaro Moon : नासा से साभार :
Astronomy Picture of the Day : 2007 September 26 :
Credit & Copyright: Stefan Seip)

सरस झोंका : रावेंद्रकुमार रवि

>> Thursday, July 22, 2010

सरस झोंका

अंबर में डोल रहा
बादल आवारा!
वसुधा को छेड़ रहा
मारकर फुहारा!

मधुमुखियाँ कहती हैं
फूल हमें भाए!
भौंरों ने कलियों के
घूँघट सरकाए!

नेह-भरी अँखियों में
ख़ुद को जब देखा!
साजन ने हाथ पकड़
सजनी को रोका!

गालों पर सजने का
आज मिला मौका!
अलकों को छेड़ गया
एक सरस झोंका!


रावेंद्रकुमार रवि

तुम्हीं बता दो ... ... . : रावेंद्रकुमार रवि

>> Thursday, July 15, 2010

तुम्हीं बता दो ... ...


मेरी आँखों को भाती है - 
मधु-मुस्कान तुम्हारी 
और दमकती छवि तुम्हारी -
चंदा-जैसी!

मेरे कानों में अमृत घोले -
आवाज़ तुम्हारी
और सरसती हँसी तुम्हारी -
झरने-जैसी!

मेरी साँसों को महकाता -
अधर-पराग तुम्हारा
और सुगंधित अलक तुम्हारी -
हरसिँगार-जैसी!

मेरे मन को पुलकित करता -
प्रिय अनुराग तुम्हारा
और नेह से भीगी बतियाँ
मिसरी-जैसी!

कैसे ना बन जाऊँ फिर
मैं रसिक तुम्हारा?
तुम्हीं बता दो -
तुम मुझको क्यों
इतनी अच्छी लगती हो? 

रावेंद्रकुमार रवि

भविष्य-दर्शन : लघुकथा : रावेंद्रकुमार रवि

>> Thursday, July 8, 2010

भविष्य-दर्शन

मैं शिब्बू की दुकान पर बैठा अख़बार पढ़ रहा था । वह मेरे लिए चाय बना रहा था । तभी एक झटके के साथ नए खुले मॉडर्न इंग्लिश स्कूल की वैन उसकी दुकान के सामने आकर रुकी और ड्राइविंग-सीट के पासवाली खिड़की से एक हाथ इस आवाज़ के साथ निकला - "शिब्बू भाई ! दो दिलबाग़ देना ज़रा ।

आज प्रंसिपल साहब ख़ुद ही ड्राइव कर रहे थे ।

शिब्बू ने दौड़कर उनको दिलबाग़ के दो गुटखे पकड़ा दिए । लौटते समय जब उसकी नज़र वैन में बैठे हुए उन नन्हे-मुन्ने मासूम बच्चों पर पड़ी, जो ललचाई नज़रों से उसकी दुकान में लटके दिलबाग़, यामू, प्रिंस, हरसिंगार आदि के रंग-बिरंगे गुटखों को देख रहे थे, तो उसकी आँखों में अपने आप ही एक विशेष प्रकार की चमक आ गई ।


रावेंद्रकुमार रवि

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