नन्हे दोस्तों को समर्पित मेरा ब्लॉग

जब भी मन करता है : प्रणय कविता : रावेंद्रकुमार रवि

>> Monday, December 5, 2011


जब भी मन करता है
तुम मुझे
अपनी तरफ देखता देखकर
अक्सर अपना मुँह
घुमा लेती हो!

क्या तुम जानती हो
कि मैं भी
चाहता हूँ
कि तुम ऐसा ही करो!

और चाहता हूँ
कि तुम यह कभी न जान पाओ
कि तुम मुझे साइड से
ज़्यादा सुंदर लगती हो!

क्योंकि मेरा दिल
तुम्हारे ख़ूबसूरत कान में सजे
झुमके में बैठकर
झूला झूलने लगता है!

और जब भी
मन करता है
प्यार से महकते हुए
तुम्हारे गालों को चूम लेता है! 

रावेंद्रकुमार रवि

दीपक-बाती झूम रहे हैं : कविता : रावेंद्रकुमार रवि

>> Friday, October 21, 2011

दीपक-बाती  झूम रहे हैं


गीत सुनाते 
चहकें हिलमिल
बच्चे घर के आँगन में!
ज्यों चहकें 
सतरंगे बादल
नीलगगन में सावन में!

सबके ओठों 
पर बिखरी
हैं खीलों-सी मुस्कानें!
और सजी हैं 
आँखों में
सपनों की मधुर दुकानें!

दीपक-बाती 
झूम रहे हैं
बँधे प्रेम के बंधन में!
किलक रहीं 
फुलझड़ी-सरीखी
झिलमिल ख़ुशियाँ हर मन में !

रावेंद्रकुमार रवि

दूरभाष : नई कविता : रावेंद्रकुमार रवि

>> Sunday, July 17, 2011

दूरभाष


हैलो, सागर!

मैं वर्षा बोल रही हूँ!
मैं संध्या के साथ
आ रही हूँ,
तुमसे मिलने!

वसुधा से कहना
वह प्रतीक्षा न करे!
आकाश उससे
कभी नहीं मिलेगा!

वैसे
समीर के हाथों
मैंने संदेश भेज दिया है
नीरद व्याकुल है
उससे मिलने के लिए
गिरीश के लिए!

रावेंद्रकुमार रवि 

नियति : प्रणय कविता : रावेंद्रकुमार रवि

>> Monday, July 11, 2011

नियति
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चार आँखें दो हुईं,
क्या हो गया!
स्वप्न की अनुगूँज का
आभास तक बिसरा गया!

करती रही मनुहार पायल,
भीजती देहरी रही!
बढ़ते रहे दो पाँव लेकिन,
दृष्टि लादे पीठ पर!

राह पर जीवन की तो
बढ़ना ही होगा,
पीठ पर हो दृष्टि
या हृदय हाथ पर!

रावेंद्रकुमार रवि

गरीब : लघुकथा : रावेंद्रकुमार रवि

>> Wednesday, June 29, 2011

गरीब
--                        
‘‘भइ, ईमानदारी की भी हद हो गई !’’ - इंसपेक्टर साहब हैट उतारते हुए अपनी पत्नी से बोले
पत्नी ने उत्सुक होकर पूछा - ‘‘क्यों, क्या हुआ ?’’
‘‘आज एक ठेलेवाला आया था, थाने में ’’
‘‘तो ?’’
‘‘तो क्या, मूर्ख कहीं का ! पूरे दस हज़ार की गड्डी जमा कर गया ’’
‘‘अच्छा ’’
‘‘हाँ, और बोला कि पड़ी मिली है मालिक का पता चल जाता, तो उसे दे देता अपने पास रखूँगा, तो खर्च हो जाएँगे ’’ 
‘‘और आप इन्हें घर ले आए बहुत अच्छी बात है ! अब क्या इन्हें गरीबों में बँटवाने का इरादा है ?’’ - पत्नी ने उन पर व्यंग्य कसा
लेकिन वे उसकी बात का बुरा मानते हुए बोले - ‘‘तुम भी ... ... पूरी बुद्धू हो ... ... अरे, हम कौन से धन्ना सेठ हैं हम भी तो गरीब ही हैं जाओ, तिजोरी में सँभालकर रख दो काम आएँगे ’’ 
--
रावेंद्रकुमार रवि 

सजाकर मुस्कान में : रावेंद्रकुमार रवि

>> Wednesday, June 22, 2011

सजाकर मुस्कान में





हो गईं सुवासित
सब हृदय की वीथिकाएँ,
जब किया
तुमने पदार्पण
सजाकर मुस्कान में
निश्छल प्रणय की
भावनाओं को!

रावेंद्रकुमार रवि

अद्वितीय होता है : नई कविता : रावेंद्रकुमार रवि

>> Wednesday, June 15, 2011

अद्वितीय होता है 
 
चाहे 
कितनी भी देर में सही
पर 
जब पहनाती है प्रकृति 
कैक्टस को मुकुट
तो वह 
अद्वितीय होता है!
रावेंद्रकुमार रवि
  

मत दिखाओ : रावेंद्रकुमार रवि

>> Monday, June 6, 2011


मत दिखाओ

मैं नहीं हूँ 
प्यास का मारा 
हुआ मृग, 

जो भटकता 
फिर रहा 
मरुभूमि में हो! 

मत दिखाओ 
तुम मुझे 
मारीचिकाएँ प्यार की! 

रावेंद्रकुमार रवि

खिल रहा है कमल : नवगीत : रावेंद्रकुमार रवि

>> Saturday, May 28, 2011

खिल रहा है कमल

शाम है अनमनी
किंतु आशा नवल!
चाँदनी में धवलखिल रहा है कमल! 

कर रहा है सुस्वागत
मधुर रात का! 
रात में हो रही, हर 
मधुर बात का! 
भोर में मिल सकेगी ख़ुशी अब नवल!

फब रही है खिलन
मेह में झूमकर! 
मन हुआ है मगन
नेह में डूबकर! 
मेल का खेल है, पाँव रखना सँभल! 

रावेंद्रकुमार रवि 
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आँखों में उसकी : नवगीत : रावेंद्रकुमार रवि

>> Saturday, May 21, 2011

आँखों में उसकी


जियरा मचल-मचल गाए, ज्यों
नदिया में पतवार!
प्यार की पड़ने लगी फुहार!
प्यार की ... ... .

मेंहदी रचे हाथ को कसकर
पहली-पहली बार,
क्वाँरे हाथों में पहनाए
ज्यों चूड़ी मनिहार,
वैसे ही सज जाए मन में
चाहत का सिंगार!
प्यार की ... ... .

खिली, अधखिली कली देखकर
मन ही मन मुस्काए,
उसकी छवि की हँसी देखकर
गुन-गुनकर कुछ गाए,
आँखों में उसकी वसंत का
हो जाए दीदार!
प्यार की ... ... .

रावेंद्रकुमार रवि

दिल ही दिल में : रावेंद्रकुमार रवि

>> Friday, April 22, 2011

दिल ही दिल में
हम
दिल से भी
कुछ कहते हैं,

तुम
उसको दिल से
सुन लेना!

सच में
यदि आ न सको,
मत आना!

दिल ही
दिल में
मिल लेना!
--
रावेंद्रकुमार रवि

मंदिर की ख़ुशबू : लघुकथा : रावेंद्रकुमार रवि

>> Monday, February 14, 2011

मंदिर की ख़ुशबू


घाटी में बसा हुआ गोपेश्वर पहाड़ियों के ऊपर बसे गाँवों से देखने पर बहुत सुंदर लगता है । घाटी के बीच में मोबाइल का टॉवर लगा हुआ है । टॉवर के पास भगवान शिव का मंदिर है । यहाँ के शिवजी गोपीनाथ के नाम से जाने जाते हैं । मंदिर काले पत्थरों से बना हुआ है । काले पत्थर धूप में चमचमा रहे हैं । गुनगुनी धूप बहुत अच्छी लग रही है । आसमान बिल्कुल साफ है । मंदिर के आँगन में महाशिवरात्रि का मेला लगा है । मेले का लाइव टेलीकास्ट चल रहा है । कुछ लोग घर में बैठे-बैठे टीवी पर मेला देख रहे हैं ।

चंदर भी टीवी देख रहा है । यह बात अलग है कि वह मेला कम देख रहा है और मेले में किसी को ढूँढ ज्यादा रहा है । दो घंटे बीत जाने के बाद भी जब उसे सुधा कहीं दिखाई नहीं दी, तो उसके सब्र का बाँध टूट गया । उसने अपने मोबाइल से सुधा का नंबर डायल किया - 9897614866 और कान से लगा लिया । एक ही डायल में फोन लग गया और उसे सुधा की हेलो ट्यून सुनाई देने लगी -


‘‘निगाहें निगाहों से मिलाकर तो देखो ... ...
नए लोगों से रिश्ता बनाकर तो देखो ... ...
जो है दिल में उसे कर दो बयाँ ... ...
ख़ुद को एक बार जताकर तो देखो ... ...
आसमाँ सिमट जाएगा तुम्हारे आगोश में ... ...
चाहत की बाहें फैलाकर तो देखो ... ...
दिल की बात बताकर तो देखो ... ... ’’

उधर सुधा के मोबाइल से भी इस गाने की रिंग-टोन बज उठी - ‘‘मेरे प्यार की आवाज पर चली आना ... ...’’
जैसे ही उसने यह एसाइन रिंग-टोन सुनी, वह समझ गई कि चंदर का फोन है । उसका मन भी गुनगुना उठा - ‘‘मैं आ रही हूँ प्यार की आवाज पर, ये प्यार-भरा नगमा तुम फिर से गुनगुनाना ... ... ’’


सुधा ने एक हाथ से बुरांश के लाल-गुलाबी फूलों से लदी टहनी पकड़ी । दूसरे हाथ में पकड़े मोबाइल को कान से लगाया और फोन रिसीव करते हुए बहुत मीठे-से पूछा - ‘‘क्या है ?’’

‘‘तृम मेला देखने क्यों नहीं आईं ?’’ - उधर से भी बहुत मीठी आवाज़ आई ।

फिर वे दोनों एक-दूसरे के कानों में रस घोलने लगे ।

‘‘तुम भी तो नहीं आए ?’’

‘‘तो क्या तुम मेले से बोल रही हो ?’’

‘‘नहीं, मैं तो टीवी में तुम्हें ढूँढ रही थी, पर तुम कहीं दिखाई ही नहीं दिए ।’’

‘‘धत्त तेरे की ! मैं भी तो तुम्हें टीवी में ढूँढ रहा था, पर तुम भी कहीं दिखाई नहीं दीं ।’’

‘‘मैंने सोचा, जब तुम दिखाई दोगे, तभी मैं भी आ जाऊँगी ।’’

‘‘मैंने भी तो यही सोचा ।’’

‘‘हो गए दोनों पागल !’’

‘‘अब क्या करें ?’’

‘‘सारा मेला तो टीवी पर ही देख लिया ... ... ’’

‘‘और अब तुम्हारी खिलखिलाहट भी सुन ली ... ... मिलने का क्या है ... ... अपना मेला तो कभी भी हो सकता है ... ... ’’

‘‘अरे, बुद्धू ! आज की बात ही कुछ और है । और फिर मंदिर की ख़ुशबू लेने के लिए तो मेले जाना ही पड़ेगा न ?’’

‘‘तो फिर देर किस बात की है ... ... आ जाओ जल्दी से ... ... थोड़ी-सी ख़ुशबू मुझे भी मिल जाएगी ... ... तुम्हारी ... ... मेरी साँसों को महकाने के लिए !’’

यह सुनते ही सुधा उड़ चली, मंदिर की ओर । किसी सुंदर-सी परी की तरह । पहाड़ी ढलान पर दौड़ते हुए ।

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रावेंद्रकुमार रवि
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