नन्हे दोस्तों को समर्पित मेरा ब्लॉग

समाधान : व्यंग्य कविता : रावेंद्रकुमार रवि

>> Sunday, January 30, 2011



समाधान



"समधीजी!
कुछ तो सोचिए!
एक साथ इतना अधिक
दहेज मत माँगिए!"
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"कोई बात नहीं!
क्या सोचना?
सामान अभी ले लेंगे,
नोट किस्तों में दे देना!" 

रावेंद्रकुमार रवि 
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वह मेरा दोस्त है : लघुकथा : रावेंद्रकुमार रवि

>> Thursday, January 20, 2011

वह मेरा दोस्त है 
सुसुम के पापा उसके लिए चार पहियोंवाली साइकिल लाए । साइकिल कई रंगों से सजी थी । साइकिल के पिछले बड़े पहिए के साथ, दोनों ओर, दो छोटे पहिए और लगे थे । ये पहिए साइकिल को गिरने से बचाते थे । उसमें हैंडिल के बीच में आगे की तरफ एक सुंदर-सी डोलची लगी हुई थी । सुनहरे रंग की डोलची, जिसमें वह अपनी गुड़िया को बैठा सकती थी । 

साइकिल पर बैठकर सुसुम शाम को पार्क में घूम रही थी । वह अपनी गुड़िया से बातें भी करती जा रही थी - ‘‘अभी तुम छोटी हो । बड़ी हो जाओगी, तब मैं तुम्हें भी साइकिल चलाने के लिए दूँगी ।’’

अचानक उसे लगा कि कोई उसके पीछे-पीछे दौड़ रहा है । उसने मुड़कर देखा - ‘‘अरे, मानुर !’’ 
मानुर कहते ही उसकी साइकिल लड़खड़ाई और वह गिरने लगी । लेकिन गिरी नहीं । मानुर ने पीछे से साइकिल का कैरियर पकड़ लिया । गुड़िया भी गिरते-गिरते बची । सुसुम ने तुरंत उसे सँभाल लिया ।

‘‘मुझे भी दो न !’’ - मानुर ने इतने प्यार से कहा कि वह उसे मना नहीं कर पाई और फिर उसने उसे गिरने से भी तो बचाया था । 

‘‘अरे, क्या कर रहे हो ? धीरे चलाओ न !’’ - मानुर ने साइकिल पर बैठते ही उसे तेज़ भगाने की कोशिश की, तो सुसुम ने उसे रोका । 

‘‘अच्छा ठीक है ।’’ - मानुर ने न चाहते हुए भी तुरंत उसकी बात मान ली । नहीं तो, दुबारा कैसे मिलती साइकिल ?

सुसुम की माँ को पता चला, तो उन्होंने उसे डाँटा । उसकी समझ में नहीं आया - ‘क्यों डाँटा ?’

दूसरे दिन मानुर ने फिर से साइकिल माँगी, तो सुसुम ने कहा - ‘‘माँ डाँटती है । तुम अपने पापा से मँगा लो ।’’

मानुर ने बताया - ‘‘कहा तो था, पर नहीं लाते ।’’

यह सुनते ही सुसुम की नज़र मानुर की कमीज पर पड़ी । उसने हमेशा उसे वही कमीज पहने हुए देखा है । 

उसे ध्यान आया - ‘मानुर के सभी भाई-बहनों का भी यही हाल है ।’ 

वह मानुर के चेहरे पर एक नज़र डालते हुए आगे बढ़ गई और मानुर अपनी जगह पर खड़ा उसे देखता रह गया ।
सुसुम आगे तो बढ़ गई, पर उसका मन पीछे ही रहा । वह सोचती जा रही थी - ‘मानुर रोज़ एक ही शर्ट पहनता   है । उसके पापा साइकिल नहीं दिलाते । वह दूसरे स्कूल जाता है । पैदल-पैदल । मुझे लेने स्कूल की बस आती है ।’

फिर उसे याद आया - ‘टीवीवाले बताते हैं कि बच्चे कम होने चाहिए । पापा भी कहते हैं कि ज़्यादा बच्चों से ख़र्चा ज़्यादा होता है ।’

अब उसकी समझ में आया - ‘मानुर के मम्मी-पापा के पास ज़्यादा बच्चे हैं, इसलिए ख़र्चा ज़्यादा होता है । तभी उसके पापा साइकिल नहीं ला पाते ।’

घर में घुसने के बाद उसने साइकिल खड़ी की । गुड़िया को गोद में लिया और उससे बोली - ‘‘अब मैं माँ से कहूँगी - मुझे डाँटें नहीं । मैं मानुर को साइकिल दे दिया करूँगी । वह मेरा दोस्त है ।’’ 
-- रावेंद्रकुमार रवि --

आए कैसे बसंत : नवगीत : रावेंद्रकुमार रवि

>> Thursday, January 13, 2011

आए कैसे बसंत?
--
मौसम की माया है,
धुंध-भरा साया है –
आए कैसे बसंत?

रोज़-रोज़ काट रहे
हर टहनी छाँट रहे!
घोंसला बनाने को
कैसे वे आएँगे?
सुन उनका कल-कूजन
क्या अब अँखुआएँगे?

नन्हे उन पंखों को
पाए कैसे अनंत?
स्वरलहरी डूब रही
गाए कैसे बसंत?
आए कैसे बसंत?

कचरे से पाट रहे
ख़ुशियों को डाँट रहे!
महक भरे झोंके अब
कैसे आ पाएँगे?
नेह-भरे सपने अब
कैसे मुस्काएँगे?

सपनों का इंद्रधनुष
पाए कैसे दिगंत?
मन-कुंठा फूल रही
भाए कैसे बसंत?
आए कैसे बसंत?
--
रावेंद्रकुमार रवि

कुहरे में भोर हुई : नवगीत : रावेंद्रकुमार रवि

>> Sunday, January 2, 2011

कुहरे में भोर हुई


कुहरे में
भोर हुई, दोपहरी कुहरे में!
कुहरे में शाम हुई, रात हुई कुहरे में!

कलियों के
खिलने की, आहट भी थमी हुई!
तितली के पंखों की, हरक़त भी रुकी हुई!
मधुमक्खी गुप-चुप है, चिड़िया भी डरी हुई!
भौंरे के
गीतों की, मात हुई कुहरे में!

सरसों कुछ
रूठी है, गेहूँ गुस्साया है!
तभी तो पसीना हर, पत्ती पर आया है!
खेतों में सिहरन का, परचम लहराया है!
मौसम पर
ठंडक की, घात हुई कुहरे में!

घर में
हम क़ैद हुए, ठंड-भरी हवा चले!
टोप पड़े सिर पर तो,मफ़लर भी पड़े गले!
दौड़ रहे दबकर हम, कपड़ों के बोझ तले!
कपड़ों की
संख्या भी, सात हुई कुहरे में!

भुने हुए
आलू की, गंध बहुत मन-भाती!
चाय-भरे कुल्हड़ से, गर्माहट मिल जाती!
आँखों ही आँखों में, बात नई बन जाती!
साँसों से
साँसों की, बात हुई कुहरे में!

रावेंद्रकुमार रवि

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