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क्वाँर की दहलीज पर : नवगीत : रावेंद्रकुमार रवि

>> Friday, September 24, 2010

क्वाँर की दहलीज पर


गुनगुनी होने लगी है
दपदपाती धूप अब तो
क्वाँर की दहलीज पर धर पाँव!

नवविवाहित युगल-जैसी
मुदित है हर भोर अब तो
हो रहा मधुमास पूरा गाँव!

है बुलाती पास अपने
सरसती वातासि अब तो
धानवाले खेत नंगे पाँव!

सोच परदेसी पिया का
गाल पर धर हाथ अब तो
करे सजनी बैठ पीपल छाँव!

झूठ-से लगते उसे हैं
सगुन के सब काज अब तो
झूठ-सी ही भोर की अब काँव!


रावेंद्रकुमार रवि

4 टिप्पणियाँ:

मनोज कुमार September 24, 2010 at 2:59 PM  

यह कविता सिर्फ फूल-पत्ते-वृक्ष खेत, धूप, आसमान की चादर पर टंके चांद-सूरज-तारे का लुभावन संसार ही नहीं, वरन जीवन की हमारी बहुत सी जानी पहचानी, अति साधारण चीजों का संसार भी है।

संगीता स्वरुप ( गीत ) September 27, 2010 at 8:50 PM  

बहुत सुन्दर नवगीत ...सारी प्रकृति आँखों के सामने आ गयी

संगीता स्वरुप ( गीत ) September 27, 2010 at 8:50 PM  

चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी रचना 28 - 9 - 2010 मंगलवार को ली गयी है ...
कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया

http://charchamanch.blogspot.com/

वाणी गीत September 28, 2010 at 7:29 AM  

बदलते मौसम की आहट...सर्दी की कुनकुनी धूप सा ही एहसास ...!

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