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आए कैसे बसंत : नवगीत : रावेंद्रकुमार रवि

>> Thursday, January 13, 2011

आए कैसे बसंत?
--
मौसम की माया है,
धुंध-भरा साया है –
आए कैसे बसंत?

रोज़-रोज़ काट रहे
हर टहनी छाँट रहे!
घोंसला बनाने को
कैसे वे आएँगे?
सुन उनका कल-कूजन
क्या अब अँखुआएँगे?

नन्हे उन पंखों को
पाए कैसे अनंत?
स्वरलहरी डूब रही
गाए कैसे बसंत?
आए कैसे बसंत?

कचरे से पाट रहे
ख़ुशियों को डाँट रहे!
महक भरे झोंके अब
कैसे आ पाएँगे?
नेह-भरे सपने अब
कैसे मुस्काएँगे?

सपनों का इंद्रधनुष
पाए कैसे दिगंत?
मन-कुंठा फूल रही
भाए कैसे बसंत?
आए कैसे बसंत?
--
रावेंद्रकुमार रवि

6 टिप्पणियाँ:

Anonymous January 13, 2011 at 10:39 PM  

मौसम के अनुकूल बहुत सुन्दर नवगीत!
हेमन्त का कुहरा मुबारक हो!

डॉ. मोनिका शर्मा January 14, 2011 at 2:28 AM  

सुंदर अभिव्यक्ति ...प्यारा लगा नवगीत

Kunwar Kusumesh January 14, 2011 at 9:42 AM  

बहुत सुन्दर रचना . लोहड़ी और मकर संक्रांति की शुभकामनायें

Kailash Sharma January 14, 2011 at 10:27 PM  

रोज़-रोज़ काट रहे
हर टहनी छाँट रहे!
घोंसला बनाने को
कैसे वे आएँगे?

प्रकृति के साथ खिलवाड़ करेंगे तो वसंत से महरूम होना ही होगा. सशक्त अभिव्यक्ति ..

siddheshwar singh January 15, 2011 at 1:16 PM  

मौसम का प्रतिकूल होना प्रकारान्तर वसंत के आगम की ही आहट है!
उम्दा!

Anonymous January 15, 2011 at 6:02 PM  

बहुत सुन्दर नवगीत रचा है आपने!
--
बसन्त जरूर आयेगा क्योकि-
कायदे से धूप अब खिलने लगी है।
लेखनी को ऊर्जा मिलने लगी है।।

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