वह मेरा दोस्त है : लघुकथा : रावेंद्रकुमार रवि
>> Thursday, January 20, 2011
सुसुम के पापा उसके लिए चार पहियोंवाली साइकिल लाए । साइकिल कई रंगों से सजी थी । साइकिल के पिछले बड़े पहिए के साथ, दोनों ओर, दो छोटे पहिए और लगे थे । ये पहिए साइकिल को गिरने से बचाते थे । उसमें हैंडिल के बीच में आगे की तरफ एक सुंदर-सी डोलची लगी हुई थी । सुनहरे रंग की डोलची, जिसमें वह अपनी गुड़िया को बैठा सकती थी ।
साइकिल पर बैठकर सुसुम शाम को पार्क में घूम रही थी । वह अपनी गुड़िया से बातें भी करती जा रही थी - ‘‘अभी तुम छोटी हो । बड़ी हो जाओगी, तब मैं तुम्हें भी साइकिल चलाने के लिए दूँगी ।’’
अचानक उसे लगा कि कोई उसके पीछे-पीछे दौड़ रहा है । उसने मुड़कर देखा - ‘‘अरे, मानुर !’’
मानुर कहते ही उसकी साइकिल लड़खड़ाई और वह गिरने लगी । लेकिन गिरी नहीं । मानुर ने पीछे से साइकिल का कैरियर पकड़ लिया । गुड़िया भी गिरते-गिरते बची । सुसुम ने तुरंत उसे सँभाल लिया ।
‘‘मुझे भी दो न !’’ - मानुर ने इतने प्यार से कहा कि वह उसे मना नहीं कर पाई और फिर उसने उसे गिरने से भी तो बचाया था ।
‘‘अरे, क्या कर रहे हो ? धीरे चलाओ न !’’ - मानुर ने साइकिल पर बैठते ही उसे तेज़ भगाने की कोशिश की, तो सुसुम ने उसे रोका ।
‘‘अच्छा ठीक है ।’’ - मानुर ने न चाहते हुए भी तुरंत उसकी बात मान ली । नहीं तो, दुबारा कैसे मिलती साइकिल ?
सुसुम की माँ को पता चला, तो उन्होंने उसे डाँटा । उसकी समझ में नहीं आया - ‘क्यों डाँटा ?’
दूसरे दिन मानुर ने फिर से साइकिल माँगी, तो सुसुम ने कहा - ‘‘माँ डाँटती है । तुम अपने पापा से मँगा लो ।’’
मानुर ने बताया - ‘‘कहा तो था, पर नहीं लाते ।’’
यह सुनते ही सुसुम की नज़र मानुर की कमीज पर पड़ी । उसने हमेशा उसे वही कमीज पहने हुए देखा है ।
उसे ध्यान आया - ‘मानुर के सभी भाई-बहनों का भी यही हाल है ।’
वह मानुर के चेहरे पर एक नज़र डालते हुए आगे बढ़ गई और मानुर अपनी जगह पर खड़ा उसे देखता रह गया ।
सुसुम आगे तो बढ़ गई, पर उसका मन पीछे ही रहा । वह सोचती जा रही थी - ‘मानुर रोज़ एक ही शर्ट पहनता है । उसके पापा साइकिल नहीं दिलाते । वह दूसरे स्कूल जाता है । पैदल-पैदल । मुझे लेने स्कूल की बस आती है ।’
फिर उसे याद आया - ‘टीवीवाले बताते हैं कि बच्चे कम होने चाहिए । पापा भी कहते हैं कि ज़्यादा बच्चों से ख़र्चा ज़्यादा होता है ।’
अब उसकी समझ में आया - ‘मानुर के मम्मी-पापा के पास ज़्यादा बच्चे हैं, इसलिए ख़र्चा ज़्यादा होता है । तभी उसके पापा साइकिल नहीं ला पाते ।’
घर में घुसने के बाद उसने साइकिल खड़ी की । गुड़िया को गोद में लिया और उससे बोली - ‘‘अब मैं माँ से कहूँगी - मुझे डाँटें नहीं । मैं मानुर को साइकिल दे दिया करूँगी । वह मेरा दोस्त है ।’’
-- रावेंद्रकुमार रवि --
4 टिप्पणियाँ:
bahut pyaari laghu katha
bahut sundar..
प्यारी सी कहानी....
बहुत सुन्दर..
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